Sunday 19 March 2017

अनाधिकार प्रवेश :रबिन्द्रनाथ टैगोर

मूल कहानी : अनाधिकार प्रवेश
लेखक : रबिन्द्रनाथ टैगोर
बाँग्ला भाषा से अनुदित



किसी एक सुबह सड़क के पास खड़े हो कर एक लड़का एक दूसरे लड़के के साथ एक अतिसाहसिक कार्य से सम्बंधित शर्त रख रहा था। ठाकुरबाड़ी के पुष्पवाटिका से फूल तोड़ सकेगा या नहीं, यही उनके तर्क का विषय था। एक लड़का बोला, ‘सकेगा’ और दूसरा लड़का बोला ‘कभी नहीं सकेगा’।
ये काम सुनने में तो बहुत आसान है लेकिन करना उतना सहज नहीं, ऐसा क्यों है ये समझाने के लिए थोड़ा और विस्तार से बताना आवशयक है।
स्वर्गवासी माधवचन्द्र तर्कवाचस्पति की विधवा पत्नी जयकाली देवी राधानाथ जी के मन्दिर की उत्तराधिकारिणी हैं। अध्यापक महाशय को तर्कवाचस्पति उपाधि मिली ज़रूर थी लेकिन वो कभी अपनी पत्नी के सामने ये सिद्ध नहीं कर पाये थे। कुछ पंडितों का कहना था कि उनकी उपाधि सार्थक हुई थी क्योंकि सारे तर्क और वाक्य सबकुछ उनकी पत्नी के हिस्से ही आये थे और वो पतिरूप मे इसका फलभोग कर रहे थे।
सत्य तो यह था कि जयकाली ज़्यादा बात नहीं करती थी लेकिन बहुधा सिर्फ दो बातों में, कभी-कभी तो नीरव रह कर भी बड़ी-बड़ी बात करनेवालों की बोलती बन्द कर देती थी।
जयकाली दीर्घाकार, बलिष्ठ देहयष्टि, तीक्ष्णनासिकायुक्त प्रखरबुद्धि महिला थी। उनके पति के जीवित रहते ही उन्हें प्राप्त देवोत्तर संपत्ति उनके हाथ से निकली जा रही थी। किन्तु विधवा जयकाली ने अपनी समस्त बक़ाया संपत्ति वसूल कर उसकी सीमा-सरहद भी तय कर दी, जो उसका प्राप्य है कोई भी उसमें से एक रत्ती भी उसे वंचित नहीं कर सकता था।
इस महिला में बहुमात्रा में पौरुष होने के कारण उसका कोई संगी-साथी नहीं था। दूसरी स्त्रियां उससे भय खाती थीं। परनिंदा, छोटी बात या फिर बात-बात पर रोना-धोना उसके लिए असहनीय था। इतना ही नहीं पुरुष भी उससे भय ही खाते थे; क्योंकि ग्रामवासी चण्डीमण्डप में बैठ कर आलस्य से भरे गपबाजी में जो दिन बिताते थे उसे वो नीरव घृणापूर्ण कटाक्ष द्वारा धिक्कारती थी जो उनके स्थूल जड़त्व को भी भेद कर उनके ह्रदय में छेद कर देती थी।
प्रबल रूप में घृणा करना और उसी रूप में उसे प्रकट करने की असाधारण क्षमता थी उस प्रौढ़ा विधवा में। उनके विचारदृष्टि में यदि कोई अपराधी ठहरता तो उसे बातों से बिना बातों के भी भाव-भंगिमा से ही दग्ध कर देती थी।
गाँव के सारे कार्यक्रमों, आपदा-विपदा में उपस्थिति रहती। हर जगह वो अपने लिए एक गौरवपूर्ण सर्वोच्च स्थान बिना चेष्टा के ही प्राप्त कर लेती थी। जहां भी उनकी उपस्थिति रहेगी सबके बीच उन्हें ही प्रधान-पद मिलेगा इस विषय में न उनको और न ही दूसरों को कोई संदेह रहता।

रोगी सेवा में सिद्धहस्त थी लेकिन रोगी उनसे यमराज की भांति डरता। रोगमुक्त होने के लिए नियमपालन में लेशमात्र भी उल्लंघन जयकाली देवी की क्रोधाग्नि रोगी के बुखार से भी अधिक तप्त कर देती थी। दीर्घाकार ये महिला गाँव के मस्तक पर विधाता के कठोर नियमदंड की तरह सदैव उपस्थित रहती; कोई उनकी अवहेलना नहीं कर सकता था और न ही उनसे प्रेम करता था। गाँव के प्रत्येक व्यक्ति से उनका योगसूत्र था लेकिन फिर भी उनके जैसी एकाकी महिला और कोई नहीं थी।

जयकाली देवी निसंतान थी। मातृ-पितृहीन अपने भाई की दो संतानों को लालन-पालन के लिए अपने घर ले आई। घर में कोई पुरुष अभिभावक न होने के कारण उन दोनों पर कड़ा अनुशासन नहीं था और स्नेहान्ध बुआ के प्रेम से दोनों बिगड़ते जा रहे हैं ऐसी बात कोई नहीं कह सकता था। उन दोनों में से बड़े की उम्र अठारह वर्ष थी। कभी-कभी उसके विवाह के प्रस्ताव भी आने लगे थे और परिणयसूत्र में बंधने के प्रति उस किशोर का मन भी कदाचित उदासीन नहीं था लेकिन उसकी बुआ ने इस सुखवासना को एक दिन के लिए भी प्रश्रय नहीं दिया। अन्य महिलाओं की भांति किशोर नवदम्पत्ति के नवप्रेमोदगम दृश्य उनकी कल्पना में बहुत उपभोग्य, मनोरम जैसा कुछ नहीं था। और उनका भतीजा विवाह कर दूसरे पुरुषों की तरह दिनभर घर में पड़े रह कर पत्नी के प्रेम आह्लाद में खा-पी कर मोटा होता रहे- ये सम्भावना उनके सम्मुख असंभव प्रतीत होती थी। वो बहुत कड़े शब्दों में कहतीं- पुलिन पहले उपार्जन करना शुरू करे, उसके बाद ही बहू घर आएगी। बुआ के इतने कठोर वाक्य सुन आगंतुकों का हृदय फट जाता।
ठाकुरबाड़ी (मन्दिर) जयकाली देवी के लिए सर्वप्रमुख और यत्नशील धन था। भगवान के शयन, स्नान-आहार में तिलमात्र की त्रुटि भी असहनीय थी। पुजारी ब्राह्मण भी अपने दो देवताओं की अपेक्षा इस मानवी से सबसे ज़्यादा भय खाते थे। पहले, एक समय था जब स्वंय देवता के नाम से निकला हिस्सा भी उन्हें पूरा नहीं मिलता था। कारण; पुजारी ब्राह्मण की एक और पूजक-मूर्ति गोपनीय मन्दिर में थी; उसका नाम निस्तारिणी था।छुपा कर घी-दूध, छेना, मैदा, नैवेद्य स्वर्ग और नर्क में बराबर बाँट दिया करता था।लेकिन आजकल जयकाली के सामने देवता को उनके हिस्से का सोलह आना पूरा ही भोग चढ़ा दिया जाता है, उपदेवता को जीविका के लिए अब अन्यत्र उपाय देखना पड़ रहा है।
जयकाली की सेवा और यत्न से मन्दिर प्रांगण साफ-सुथरा झकझक करता है– कहीं एक तिनका भी पड़ा नहीं रहता। प्रांगण के पार्श्व में माधवी लता उग आयी है। उसके यदि एक भी सूखा पत्ता गिरे तो जयकाली तुरन्त उसे उठा कर बाहर फेंक देती है। मन्दिर की परिपाटी, शुद्धता और पवित्रता में लेशमात्र भी व्यवधान होने पर जयकाली देवी उसे सहन नहीं कर पाती थी। पहले गाँव के लड़के छुपा-छुपी खेलते हुए इसी प्रांगण में आश्रय लेते थे लेकिन अब ये सुयोग सम्भव नहीं। पर्व-उत्सव के अतिरिक्त मन्दिर प्रांगण में ऊधम मचाने की अनुमति किसी को नहीं। कभी-कभी बकरी शावक भी घुस आते थे पौधे लता-पत्ता खा कर अपनी भूख मिटाने के लिए, लेकिन अब यहां पाँव धरने पर दंड प्रहार खा कर मीमियाते हुए भागना पड़ता है।
अनाचारी व्यक्ति चाहे वो परम आत्मीय सम्बन्धी ही क्यों न हो उसका मन्दिर प्रांगण में प्रवेश नहीं हो सकता था। जयकाली की एक भगिनी का पति, जो खान-पान में धर्मच्युत, मांस लोलुप था आत्मीयतापूर्वक भेंट करने आया, किंतु जयकाली के त्वरित प्रवेश-विरोध प्रदर्शन पर सगी बहन से सम्बन्ध विच्छेद हो गया। इस मन्दिर से सम्बंधित अनावश्यक अतिरिक्त सतर्कता सामान्य व्यक्तियों के बीच पागलपन ही माना जाता था।
जयकाली बाकि हर जगह कठोर, दृढ और स्वतन्त्र थी, मात्र इस मन्दिर में वो सम्पूर्ण आत्मसमर्पित थी। इस मूर्ति के सामने जयकाली जननी, पत्नी, दासी—इनके सामने वो सतर्क, सुकोमल, सुंदर और नम्र थी। एकमात्र इस मन्दिर प्रस्तर और अंदर विराजे देवता के सामने ही जयकाली का निगूढ़ नारीस्वभाव चरितार्थ होता था, यही उसका स्वामी, पुत्र और समस्त संसार बन गया था।
इतना जानने के बाद पाठक अब समझ सकते हैं कि मन्दिरप्रांगण से फूल तोड़ कर दिखाने की प्रतिज्ञा करनेवाले लड़के के साहस की सचमुच कोई सीमा नहीं थी। वो जयकाली का छोटा भतीजा नलिन था। वो अपनी बुआ को बहुत अच्छी तरह जानता है फिर भी उसकी दुर्दांत प्रकृति, बुआ के अनुशासन के वश में नहीं आयी। जहाँ भी विपदा हो उसका आकर्षण भी वहीं होता, और जहाँ अनुशासन वहीं उसका मन उसे लंघित करने को चंचल हो उठता। जनश्रुति है, नलिन की बुआ भी अपने बाल्यकाल में उसी के स्वाभाव की अभिरूप थी।
जयकाली उस समय मातृ स्नेहमिश्रित भक्ति भाव सहित देवता की ओर दृष्टि टिकाये दालान में बैठ कर माला जाप कर रही थी।
लड़का दबे पाँव चुपचाप पीछे से आ कर माधवी लता के निचे खड़ा हो गया। देखा, निचली शाखाओं के फूल देवता को चढाने के लिए तोड़ लिए गए हैं, तब बहुत ही धीरे धीरे सावधानी से मंच पर चढ़ गया। ऊँची डाल पर छोटी-छोटी कलियाँ लगी हुई थीं, उन्हें ही तोड़ने के लिए उसने अपने शरीर और बाहों को ऊपर उठाना शुरू ही किया था की जीर्ण मंच मचमच की आवाज़ के साथ टूट कर टुकड़े हो गया। मंच से झूलती लताएँ और नलिन दोनो ही एक साथ भूमिसात हो गए।
जयकाली दौड़ कर आयी और अपने भतीजे के काण्ड की दर्शक बनी। ज़ोर से उसकी बाँह पकड़ उसे ज़मीन से उठाया। नलिन को काफी चोट आयी थी लेकिन उन चोटों को पर्याप्त सजा नहीं कहा जा सकता क्योंकि वो अज्ञात ही मिल जाता है ऐसा जयकाली देवी का विचार था, इसलिए उस चोटिल लड़के पर बुआ की कठोर मुष्टि का प्रहार भी पड़ने लगा। लड़के की आँख से एक बून्द आंसू नहीं टपका तब उसे खींचते हुए एक कमरे में ला कर बन्द कर दिया गया इतना ही नहीं आज शाम का नाश्ता भी न देने का आदेश हो गया।
खाना बन्द होने का आदेश सुन दासी लीलामति छलछलाती आँखों के साथ बच्चे को क्षमा कर देने का अनुरोध करने लगी किन्तु जयकाली का मन नहीं पसीजा। उस घर में ऐसा कोई दुःसाहसी नहीं था जो ब्राह्मणी के आदेश की अवमानना कर उस भूखे बच्चे को कुछ भी छुपा कर खिला सके।
जयकाली नया मंच बनाने का आदेश दे पुनः माला जाप करने दालान में आ कर बैठ गयी। कुछ देर बाद लीलामति पुनः उपस्थित हुई, बोली लड़का भूख से रो रहा है उसे कुछ खाने के लिए दे दूँ?
अविचलित एक शब्द में उत्तर मिला, नहीं! लीलामति चुपचाप लौट गयी। पास ही एक कमरे में बन्द नलिन के रोने का करुण स्वर धीरे-धीरे क्रोध गर्जना में परिवर्तित होने लगा—अंत में बहुत देर बाद उसका कातर रुद्ध कंठस्वर माला जपती हुई बुआ के कान तक पहुंचा।
नलिन का रुदन जब परिश्रांत और मौनप्राय हो आया ठीक तभी एक दूसरे प्राणी की डरी हुई कातर ध्वनि सुनाई पड़ने लगी और उसके साथ ही एकसाथ दौड़ते हुए चीत्कार करते कुछ लोगों की कलरव ध्वनि मन्दिर के सम्मुख उपस्थित हुई।
सहसा मन्दिर प्रांगण में पदध्वनि हुई। जयकाली पीछे मुड़ कर देखी, भूमि तक माधवी लता हिल रही है।
मृदु स्वर में जयकाली आवाज़ दी, ‘नलिन!’
कोई उत्तर नहीं मिला। समझी, किसी प्रकार बन्दीगृह से पलायन कर फिर से उन्हें तंग करने यहां पहुँच गया है।
अपनी मुस्कान होंठों को दबा कर छुपाते हुए प्रांगण में उत्तर आयी।
लताकुंज के पास जा कर पुनः आवाज़ लगायी, ‘नलिन!’
कोई उत्तर नहीं मिला। एक शाखा हटा कर जयकाली ने देखा, एक शूकर प्राणभय से आक्रांत हो घने लताकुंज में आश्रय ले कर छुपा है।
जो लताकुंज इष्टदेवता के वृन्दावन का प्रतिरूप, जिसकी खिली हुई कलियों की सुगन्ध गोपियों के श्वास सुरभि की याद दिलाती है और कालिंदी तट के सुखविहार, सौंदर्यस्वप्न को जागृत करती है--- जयकाली के प्राणों से भी अधिक यत्न से पवित्र बनाये रखे इस नंदनभूमि पर अकस्मात ऐसी वीभत्स घटना घट गयी!
पुजारी लाठी हाथ में ले दौड़ा आया।
जयकाली तुरंत ही अग्रसर हो उसे रोक दी और द्रुतगति से मंदिर का मुख्यद्वार अंदर से बन्द कर दी।
सुरापान से उन्मत डोम दल मन्दिर द्वार पर आकर चिल्लाने लगे उन्हें उनका बलि-पशु वापस चाहिए!
जयकाली बन्द द्वार के पीछे से ही चिल्ला कर बोली, ‘जाओ, यहाँ से भाग जाओ! मेरा मंदिर अपवित्र मत करो!
डोम दल वापस लौट गया। जयकाली ब्राह्मणी अपने राधानाथ जी के मन्दिर में एक अशुचि प्राणी को आश्रय देगी, ये प्रत्यक्ष देख कर भी किसी को अपनी आँखों पर विश्वास नहीं हो रहा था।
इस सामान्य सी एक घटना ने अखिल जगत के महादेवता को भले ही परम प्रसन्न किया होगा किन्तु समाज नामधारी अतिक्षुद्र देवता बहुत क्षुब्ध हो गए।

5 comments:

  1. सुन्दर।
    शायद "वराह अवतार" ध्यान आ गया हो :)

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  2. सुन्दर।
    शायद "वराह अवतार" ध्यान आ गया हो :)

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  3. सुंदर कहानी का चयन। उतना ही सुंदर अनुवाद। बधाई।

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